
भारतीय राजनीति का स्तर अब नीतियों की बहस से हटकर निजी हमलों और विकृत भाषा की ओर मुड़ गया है। पहले जहां विपक्षियों के बीच “मतभेद” होता था, अब “मनभेद” साफ झलकता है। आज की राजनीति में भाषा एक सेतु नहीं, एक हथियार बन चुकी है। “राजनीति में गाली गलौज” और “नेताओं की विवादित भाषा” जैसे कीवर्ड्स गूगल पर टॉप ट्रेंड कर रहे हैं।
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जब बहस की जगह बवाल ने ली
कभी संसद में अटल बिहारी वाजपेयी जैसे नेता अपने विरोधियों से भी गरिमा से बात करते थे। आज वही संसद ट्रोलिंग का अखाड़ा बन गई है। सार्वजनिक मंचों पर “पप्पू”, “जुमलेबाज़”, “गद्दार”, “खिलाड़ी”, जैसे जुमलों ने संवाद का स्तर गिरा दिया है। सोशल मीडिया पर नेताओं की भाषा आम आदमी के शब्दकोश को विषाक्त कर रही है।
विरोध विचारधारा का नहीं, अब व्यक्ति का है
पहले: पॉलिसी पर बहस, अब: व्यक्ति पर हमला, अब नेताओं की आलोचना “आपकी सोच ग़लत है” से बदलकर “आप ग़लत इंसान हैं” में तब्दील हो गई है। यह राजनीति से ज्यादा समाज को तोड़ रहा है। समर्थक भी अब नफरत के एजेंडे पर चलने लगे हैं। सोशल मीडिया पर देखें तो पार्टी का समर्थन भक्ति और चमचा बन चुका है, जहां विरोध करने वाले को “मारने पर उतारू” हैं।
मीडिया और सोशल मीडिया की मिलीजुली भूमिका
TRP और Clickbait के युग में, नेताओं की भाषा अगर और ज़हरीली हो तो बेहतर मानी जाती है। डिबेट्स में जितनी तीखी ज़ुबान, उतना ज्यादा स्क्रीन टाइम। ट्रेंडिंग हेडलाइंस में “XYZ ने ABC को धोया!” जैसे शब्द आम हो चले हैं। इससे एक “वायरल संस्कृति” जन्म लेती है जो संवादी नहीं, विघटनकारी है।
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युवा मतदाता पर असर
नई पीढ़ी राजनीति से जुड़ रही है — लेकिन भाषा का ये स्तर उनके मूल्यों को प्रभावित कर रहा है। वे नेताओं से बहस करना नहीं, मीम और मॉब की तरह रीऐक्ट करना सीख रहे हैं। राजनीति से विमुखता और कट्टरता — दोनों एक साथ बढ़ रही हैं।
भाषा सुधरेगी तो लोकतंत्र निखरेगा
राजनीति विचारों की लड़ाई है, दुश्मनी की नहीं।
जब भाषा गरिमामयी होती है, तब मतभेद लोकतंत्र को मजबूत करते हैं। लेकिन जब शब्दों में ज़हर हो, तो विचार भी मरने लगते हैं।
मेरा कहना ये है कि आज ज़रूरत है कि नेता ही नहीं, जनता भी सवाल पूछे — “क्या ये भाषा लोकतंत्र को सूट करती है?”
साथ ही, हमें उन नेताओं को सपोर्ट करना चाहिए जो शब्दों का संयम जानते हैं, भले ही उनका विचार हमसे अलग हो।